Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-



70. निगंठ - दर्शन : वैशाली की नगरवधू

उपाश्रय के द्वार पर ही एक सामनेर हाथ में पोथी लिए कुछ सूत्र रट रहा था । सोम ने सीधे उसी के पास पहुंचकर कहा - “ भन्ते सामनेर , मैं श्रमण भगवान् महावीर का दर्शन किया चाहता हूं। ”

“ श्रमण भगवान् अवरोध में नहीं रहते भद्र! किन्तु मैं उनकी अनुज्ञा ले आता हूं। आप कौन हैं ? ”

“ एक अर्थी हूं और गुरुतर कार्यवश भगवान् का दर्शन किया चाहता हूं। ”

“ तो भद्र, तुम क्षण - भर ठहरो , मैं अभी आया । ”

सामनेर जाकर शीघ्र ही लौट आया । आकर उसने कहा - “ भन्ते , भगवान् श्रमण ने इसी समय तुम्हें दर्शन देने का प्रसाद किया है। मेरे साथ आओ। ”आगे- आगे सामनेर और पीछे-पीछे सोम उपाश्रय के सिंहद्वार को पारकर एक विशाल मैदान में पहुंचे। वहां देखा , एक वटवृक्ष की छांह में सर्वजित् महावीर जिन सिर नीचा किए ध्यान -मुद्रा में बैठे थे। उनके छोटे - छोटे श्वेत श्मश्रु- केश मुख और सिर पर विरल दीख रहे थे। अंग में वृद्धावस्था के लक्षण लक्षित थे । उनका गौरवर्ण अंग इस अवस्था में भी तेजपूर्ण था तथा दृष्टि मर्मभेदिनी थी । उसमें स्नेह और करुणा का प्रवाह बहता - सा प्रतीत हो रहा था । उनकी आकृति तप्त कांचन के समान प्रभावपूर्ण दीख रही थी और स्थिर मुद्रा एक सहज - शांत भाव का सृजन कर रही थी । सोम अभिवादन कर एक ओर बैठ गए । श्रमण ने गर्दन को तनिक सोम की ओर घुमाकर कहा - “ कह वत्स , मैं तेरा क्या प्रिय करूं ? ”

“ भन्ते , मैं गुह्यनिवेदन किया चाहता हूं। ”

“ तो एक क्षण ठहर भद्र, ” इतना कहकर श्रमण महावीर ने अपने चारों ओर देखा । उपासक उठ गए। एक शिष्य बैठा था , उससे श्रमण ने कहा - “ अभी तू जा वत्स , फिर आना । और सामनेर की ओर देखकर कहा - “ तू द्वार पर ठहर । जब तक मैं आयुष्मान् से बात करूं , इधर कोई न आए। ”

वे दोनों भी चले गए । तब श्रमण महावीर ने सोम की ओर देखकर कहा - “ अब कह भद्र ? ”

“ भन्ते , चम्पा - राजनन्दिनी चन्द्रभद्रा भगवान की शरण - कामना करती है । ”

श्रमण महावीर एकबारगी ही विस्मय और उद्वेग से आंखें फाड़ - फाड़कर सोम की ओर देखने लगे । उन्होंने कहा - “ तो क्या सुश्री शीलचन्दना चन्द्रभद्रा अभी जीवित है ? वह कहां है, शीघ्र कह ! ”

“ श्रावस्ती ही में है भन्ते ! ”

“ कहां भद्र ! शीघ्र कह, उस शोभामयी सुकुमारी की शुचि मूर्ति देखने को मैं व्याकुल हूं। वह कुमारी कहां है, मागधों ने उसे जीवित कैसे छोड़ दिया ? ”

सोम ने लज्जा से आंखें नीची कर लीं और मन्द स्वर से कहा - “ भन्ते भगवान् वह चम्पा - पतन के बाद आपकी शरण में श्रावस्ती आ रही थीं । मार्ग में तस्कर दास-विक्रेताओं के फंदे में फंस गईं। उन्होंने उन्हें यहां श्रावस्ती में लाकर दासों के हट्ट में बेच दिया । ”

“ बेच दिया ! क्या कहते हो भद्र ? ”.

“ हां भगवान्, महाराज प्रसेनजित् से नवविवाह के उपलक्ष्य में राजमहिषी मल्लिका को नियमानुसार महाराज को भेंट करने के लिए एक दासी की आवश्यकता थी । उसी काम के लिए राजमहालय के कंचुकी ने स्वर्णभार देकर कुमारी को क्रय कर लिया । ”

“ शान्तं पापं ! क्या महिषी मल्लिका ने उसे दासी -भाव से महाराज को भेंट करने के लिए क्रय किया है ? ”

“ हां भन्ते ! ”

“ तुम कौन हो भद्र! ”

“ मैं मागध हूं। ”

“ ओह! ”भगवान् महावीर नीची दृष्टि किए कुछ देर सोचते रहे। फिर बोले - “ तो क्या कुमारी को यह ज्ञात है कि वह कर्म -विपाक से शत्रु से उपकृत हुई है ? ”

“ ज्ञात है भन्ते । ”

“ तुम्हीं ने राजकुमारी की सहायता की है ? ”

“ भन्ते, कुमारी की एक सखी और है। ”

“ वह कौन है ? ”

“ मागधी ही है। चम्पा के पतन के बाद, कुमारी की रक्षा और व्यवस्था हम लोगों ने शक्ति - भर की है । ”सोम ने अपने स्त्री - वेश में अन्तःपुर में प्रवेश का भी वर्णन कर दिया । सब सुनकर श्रमण महावीर ने कहा - “ तुम्हारा नाम क्या है भद्र ? ”

“ सोम , भन्ते ! ”

“ अच्छा तो सोमभद्र , तुम मुहूर्त - भर वहां उपाश्रय में प्रतीक्षा करो। तब मैं तुमसे बात करूंगा और उस पीठिका पर से सामनेर को मेरे पास भेज दो । ”

सोम ने अभिवादन करके स्वीकार किया । वह चले गए। सामनेर ने श्रमण के सम्मुख आकर वन्दना की ।

श्रमण ने कहा - “ भद्र, हम अभी राजकुमार विदूडभ को देखा चाहते हैं । ”

“ भगवान् की जैसी आज्ञा ! ”

सामनेर चेला गया । महावीर स्वामी गहन चिन्ता में मग्न हो गए ।

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